Wednesday, December 30, 2009

लाई हयात, आए, क़ज़ा ले चली, चले... (ज़ौक़)

विशेष नोट : मोहम्मद इब्राहिम 'ज़ौक़' या सिर्फ 'ज़ौक़' के नाम से मशहूर इस शायर का असली नाम शेख़ इब्राहिम था, और यह मिर्ज़ा ग़ालिब के समकालीन थे...

लाई हयात, आए, क़ज़ा ले चली, चले...
अपनी ख़ुशी न आए, न अपनी ख़ुशी चले...

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे...
पर क्या करें, जो काम न बे-दिल-लगी चले...

कम होंगे इस बिसात पे, हम जैसे बद-क़िमार...
जो चाल हम चले, सो निहायत बुरी चले...

हो उम्रे-ख़िज़्र भी, तो कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग...
हम क्या रहे यहां, अभी आए, अभी चले...

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ...
तुम भी चले चलो, यूं ही जब तक चली चले...

नाज़ां न हो ख़िरद पे, जो होना है वो ही हो...
दानिश तेरी, न कुछ मेरी दानिशवरी चले...

जाते हवाए-शौक़ में हैं, इस चमन से 'ज़ौक़'...
अपनी बला से बादे-सबा, अब कभी चले...

मुश्किल लफ़्ज़ों के माने...
हयात : ज़िन्दगी
क़ज़ा : मौत
बिसात : जुए के खेल में
बद-क़िमार : कच्चे जुआरी
उम्रे-ख़िज़्र : अमरता
ब-वक़्ते-मर्ग : मौत के वक्त
ख़िरद : बुद्धि
दानिश : समझदारी
हवाए-शौक़ : प्रेम की हवा
बादे-सबा : सुबह की शीतल वायु

1 comment:

  1. बहुत धन्यवाद। इस शायरी के पहले अलफ़ाज़ मेरी दादी के आखरी शब्द थे मेरे लिये.

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