Thursday, September 10, 2009

यूं ही बेसबब न फिरा करो... (बशीर बद्र)

विशेष नोट : आजकल के शायरों में बशीर बद्र की कलम मुझे पसंद आती है... सो, उनकी यह ग़ज़ल आपकी नज़र कर रहा हूं...

यूं ही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो,
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो...

कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो...

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा, कोई जाएगा,
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो...

मुझे इश्तिहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियां,
जो कहा नहीं, वो सुना करो, जो सुना नहीं, वो कहा करो...

ये ख़िज़ां की ज़र्द-सी शाल में, जो उदास पेड़ के पास है,
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो...

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