Monday, July 13, 2009

एक बूंद... (अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध')

विशेष नोट : हाल ही में एक सहयोगी ने अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की इस कविता का ज़िक्र अपने फेसबुक एकाउंट पर किया... यह कविता मैंने बचपन में पढ़ी थी, और बेहद खूबसूरत रचना है...

ज्यों निकल कर बादलों की गोद से,
थी अभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी,
सोचने फिर-फिर यही जी में लगी,
आह! क्यों घर छोड़कर मैं यों कढ़ी...?

देव! मेरे भाग्य में क्या है बदा,
मैं बचूंगी या मिलूंगी धूल में?
या जलूंगी फिर अंगारे पर किसी,
चू पडूंगी या कमल के फूल में...?

बह गई उस काल एक ऐसी हवा,
वह समुन्दर ओर आई अनमनी,
एक सुन्दर सीप का मुंह था खुला,
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी...

लोग यों ही हैं झिझकते, सोचते,
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर,
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें,
बूंद लौं कुछ और ही देता है कर...

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